शाश्वत सुख
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे अन्तर्हृदय बसी है |
अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच सजी है |
आनंदानुभूति का सागर ,
मन के अंदर लहराता है |
अक्षय परमानंद पयस्विनि ,
मन के हिमगिरि बीच रची है ||
जग के सुख सागर में डूबे,
प्रेम-प्रीति के सुख मन भाये |
रिश्ते-नाते , मोह भावना,
रीति-नीति, उपभोग सुहाए |
रिद्धि-सिद्धि सत्ता सुख भारी,
कम-तृप्ति आनंद विचारी |
श्रवण नेत्र रसना सुख सारे,
कहाँ तृप्ति, बहु भांति सँवारे |
बहु विधि हाट-विलास सजी है,
प्रेम-नदी उर बीच बसी है |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे अन्तर्हृदय बसी है ||
अंतर्मन में झाँक सके तो ,
मन की पुस्तक बांच सके तो |
कितने हमने पुण्य कमाए ,
कितने पल-छिन व्यर्थ गँवाए |
कितनों की पीढा को समझा,
कितने परहित किये किसी के?
कितने वलिदानी वीरों की ,
राहों पर हम चलना सीखे ?
कितना अपना धर्म निभाया ,
कितना अपना कर्म सजाया |
कितने ज्ञान-भाव उर उभरे,
कितना प्रभु से नेह लगाया |
यदि मन प्रभु की प्रीति बसी है,
जन-जन जग की प्रीति सजी है |
यही मुक्ति है इस तन मन में,
परमानंद विभूति सजी है ||
अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच सजी है |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे अन्तर्हृदय बसी है |