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मंगलवार, 17 जुलाई 2012

शाश्वत सुख .....'डा श्याम गुप्त ...



                                             
               
       शाश्वत  सुख 

शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |
अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |


आनंदानुभूति  का  सागर ,
मन के अंदर लहराता है |
अक्षय परमानंद पयस्विनि ,
मन के हिमगिरि बीच रची है ||


जग के सुख सागर में डूबे,
प्रेम-प्रीति के सुख मन भाये |
रिश्ते-नाते , मोह भावना,
रीति-नीति, उपभोग सुहाए |


रिद्धि-सिद्धि सत्ता सुख भारी,

कम-तृप्ति आनंद विचारी |
श्रवण  नेत्र रसना सुख सारे,
कहाँ तृप्ति, बहु भांति सँवारे |


बहु विधि हाट-विलास सजी है,
प्रेम-नदी  उर बीच  बसी  है  |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
तेरे  अन्तर्हृदय   बसी    है ||

अंतर्मन  में झाँक सके तो ,
मन की पुस्तक बांच सके तो |
कितने हमने पुण्य कमाए ,
कितने पल-छिन व्यर्थ गँवाए |

कितनों  की पीढा को समझा,
कितने परहित किये किसी के?
कितने वलिदानी   वीरों  की ,
राहों पर हम चलना सीखे ?

कितना  अपना धर्म निभाया ,
कितना अपना कर्म सजाया |
कितने ज्ञान-भाव उर उभरे,
कितना प्रभु से नेह लगाया |


यदि मन प्रभु की प्रीति बसी है,
जन-जन जग की प्रीति सजी है |
यही मुक्ति है इस तन मन में,
परमानंद  विभूति  सजी  है ||


अंतर के पट खोल बावरे,
तृप्ति नदी उर बीच  सजी है |
शाश्वत सुख की गठरी तो बंदे ,
 तेरे   अन्तर्हृदय  बसी  है |
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