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शनिवार, 14 जुलाई 2012

काले मतवाले घन - डा श्याम गुप्त

काले मतवाले घन.....घनाक्षरी छंद

(लीजिये चौमासे लग गए, वो आये तो चाहे बड़े इंतज़ार के बाद आये..... आइये वर्षा की फुहारों में चार कवित्त   छंदों से भीगने का आनंद लीजिये ----
 
काले-काले मतवाले घिरे घनघोर घन ,
बरखा सुहानी आई ऋतुओं की रानी है।
रिमझिम-रिमझिम रस की फुहार झरें ,
बह रही मंद-मंद पुरवा सुहानी है।
दम-दम दामिनि,दमकि रही, जैसे प्रिय,
विहंसि-विहंसि, सखियों से बतरानी है।
बरसें झनन -झन,  घनन -घन गरजें ,
श्याम '  डरे जिया,उठै कसक पुरानी है॥


टप-टप बूँद गिरें, खेत गली बाग़ वन ,
छत,छान छप्पर चुए, बरसा का पानी ।
ढ र ढ र जल चलै, नदी नार पोखर ताल ,
माया वश जीव चले राह मनमानी।
सूखी-सूखी नदिया, बहन लगी भरि जल,
पाइ सुसुयोग ज्यों हो उमंगी जवानी ।
श्याम ' गली मग राह, ताल ओ तलैया बने ,
जलके जंतु क्रीडा करें,  बोलें बहु बानी॥


वन-वन मुरिला बोलें,बागन मोरलिया,
टर-टर रट यूँ  लगाए  रे दादुरवा ।
चतुर टिटहरी चाह ,पग टिके आकाश ,
चक्रवाक अब न लगाए रे चकरवा ।
सारस बतख बक, जल में विहार करें,
पिऊ-पिऊ टेर, यूँ लगाए रे पपिहवा ।
मन बाढ़े प्रीति, औ तन में अगन श्याम,
छत पै सजन भीजे, सजनी अंगनवा ॥


खनन खनन मेहा,पडे टीन छत छान ,
छनन -छनन छनकावे द्वार अंगना ।
पिया की दिवानी, झनकाये ज्यों पायलिया,
नवल -नवेली खनकाय रही कंगना ।
कैसे बंधे धीर सखि, जियरा को चैन आबै,
बरसें नयन,  उठे मन में तरंग ना ।
बरखा दिवानी हरषावे, धड़कावे जिया ,
ऋतु है सुहानी ,श्याम' पिया मोरे संग ना॥



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