( घनाक्षरी छंद )
कली कुञ्ज-कुञ्ज क्यारी-क्यारी कुम्हिलाई है |
पावक प्रतीति पवन परसि पुष्प पात-पात,
जारै तरु-गात, डाली-डाली मुरझाई है |
जेठ की दुपहरी यों तपाये अंग-प्रत्यंग ,
मलय बयार मन मार अलसाई है |
तपें नगर गाँव, छाँव ढूँढि रही शीतल छाँव ,
धरती गगन श्याम, आगि सी लगाई है ||
सुनसान गली वन बाग़ बाज़ार पड़े,
जीभ को निकाल श्वान, हांफते से जा रहे |
कोई पड़े एसी-कक्ष, कोई लेटे तरु छांह ,
कोई झलें पंखा, कोई कूलर चला रहे |
जब कहीं आवश्यक कार्यं से है जाना पड़े,
पोंछते पसीना तेज कदमों से जारहे |
ऐनक लगाए 'श्याम, छतरी लिए हैं हाथ,
नर-नारी सब ही पसीने से नहा रहे ||
टप टप टप टप, अंग बहै स्वेद धार |
ज्यों उतरि गिरि-श्रृंग जल-धार आई है |
बहै घाटी मध्य, करि
विविध प्रदेश पार,
धार सरिता की जाय सिन्धु में समाई है |
श्याम खुले केश, ढीले-ढाले वस्त्र तिय देह ,
उमंगें उरोज, उर
उमंग उमंगाई है |
ताप से तपे हैं तन, ताप
तपे तन-मन,
निरखि नैन नेह, नेह
निर्झर समाई है ||
चुप-चुप चकित न चहक रहे खगवृन्द,
सारिका ने शुक से भी चौंच न लड़ाई है |
बाज औ कपोत बैठे एक ही तरु-डाल,
मूषक बिडाल भूलि बैठे शत्रुताई है |
नाग-मोर एक ठांव, सिंह-मृग एक छाँव ,
धरती मनहु तपोभूमि सी सुहाई है |
श्याम, गज-ग्राह मिलि बैठे सरिता के कूल,
जेठ की दुपहरी, साधु-भाव जग लाई है ||
हर गली-गाँव, हर नगर मग ठांव ,
जन-जन, जल- शीतल पेय हैं पिला रहे |
कहीं मिष्ठान्न बटें, कहीं है ठंडाई घुटे,
मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे |
राह रोकि हाथ जोरि, शीतल-जल भेंट करि,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिला रहे|
भुवन भाष्कर, धरि मार्तंड रूप, श्याम,
उंच नीच भाव मनहुं मन के मिटा रहे ||
Sundar post
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी.....
हटाएंbahut hi sundar...
जवाब देंहटाएंLagta hai ab kuch rahat meelegi es bhishan garmi se...
Sureshkimehfil.blogspot.com
धन्यवाद सुरेश जी ...आभार आशा है जल्द राहत मिलेगी...
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति! ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सबाई जी.....
हटाएंbahut behtreen aur sunder prastuti
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय....ईश्वर करे जल्द ही राहत मिले ...
हटाएं