सरिता-संगीत .
नदिया !
तुम कहाँ जाती हो ?
दिशाहीन , उद्देश्यहीन,
पर्वतीय नदी--झरना
|
कभी खिलखिलाती हुई-
उच्छ्रंख्ल बालिका की तरह,
पत्थरों से टकराकर, उछलती हुई |
कभी गहराकर, गंभीर समतल में -
सोचती सी बहती हुई,
लहराती हुई |
और अंत में होजाती हो,
सागर में विलीन,
अस्तित्वहीन ||
नदिया मुस्कुराई ,
कल कल कल कल , खिलखिलाई ;
फिर लहर लहर लहराई |
यह जीवन लहरी है,
कहीं उथली ,
कहीं गहरी है |
यह जीवन धाराहै
प्रेम प्रीति का रस न्यारा है ||
प्रियतम की डोर बांधे,
मन को साधे ,
जीवन की ऊंची-नीची, डगर डगर-
चलते जाना ही तो जीवन है |
प्रियतम की राह में ;
मिलने की आस लिए,
मिलने की आस लिए,
चलना ही रीति है ;
यही तो प्रीति है |
सर्वस्व लुटा देना,
अपने को भुला देना ,
अस्तित्व विहीन होकर;
प्रिय में लय कर देना ,
यह प्यार की जीत है;
यही तो प्रीति है ||
वाह: बहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंआभार कनेरी जी....
हटाएंबहूत हि सुंदर मनभावन रचना...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रीना जी.... उद्देश्यहीन.. उद्देश्य ...यह जीवन लहरी है...
हटाएंलाजवाब रचना,बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ..
हटाएं.यह मेरा निर्झर मन है जो,
झर झर झर झर बहता ...
बहुत खूब लिखा है सुंदर रचना के लिए आभार ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद योगेन्द्र...प्राक्रतिक सन्गीत का सौन्दर्य..इस कल कल कल में...
हटाएंधन्यवाद धीरेन्द्र जी...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सबाई जी..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विवरण है |
जवाब देंहटाएंआशा
धन्यवाद आशाजी...
हटाएंनदिया, सागर लय हुई,खोकर निज़ अस्तित्व।
नदिया से सागर हुई, जग-जीवन का सत्य ।