“ ये तो मुख्य शहर से बहुत दूर है, भाई साहब !
’क्या तुम सोच सकते हो कितनी दूर है ?’
’इसका क्या अर्थ? मैंने प्रश्न-वाचक निगाहों से अपने बडे भाई से पूछा। ”
’यही कि बचपन में शहर से हम अपने जिस गांव तीन घन्टे में पहुंचते थे, अब सिर्फ़ ८ कि मी दूर है।’
”क्या ?
अपना
गांव
इतना
पास
है।
मैंने आश्चर्य व उत्सुकता से पूछा ।’
हां, चलना है क्या? भाई साहब बोले ।’”
’हां, हां अवश्य ”
और हम लोग स्कूटर उठाकर अपने गांव चल दिये। ४० वर्ष बाद मैं जा रहा था अपने गांव, जहां अपना कहने को कुछ भी नहीं था। बावन खम्भों वाली हवेली पहले ही हथियायी जा चुकी थी, अनधिकृत लोगों द्वारा, जमींदारी समाप्त होने के साथ ही ला. गिरिधारी लाल-बैजनाथ के परिवार के, गांव छोडकर दूर-दूर जा बसने के उपरान्त । जिसका मन होता अपना घर उस जमीन पर बसा लेता और सुना करते थे, खुदाई में मिले गढे हुए धन की चर्चायें, जिस पर उसी का अधिकार होता जो बसता जाता। शेष बची प्रापर्टी गिरधारीलाल जी के बडे पुत्र बेच-बाच कर शहर पलायन कर गये। सम्पत्ति का कोई बट्वारा भी न होपाया था ।
छोटे पुत्र जगन जी बाज़ार वाली दुकान को ही घर बनाकर रहने लगे। कठिनाई से मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करके व अन्य दायित्वों का निर्वहन करके वे भी शहर में नौकरी करने लगे। जन्म भूमि व घर का मोह बडा गहरा होता है, अत: जब भी शहर से ऊब जाते हम सब को लेकर गांव में आकर रहने लगते। हम सब उसी दुकान को ही अपना घर समझते थे, और लगभग प्रत्येक वर्ष स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में गांव रहने चले आते। जब हम सब भी शिक्षा के एक स्तर के उपरान्त अन्य शहरों में रहने लगे तो गांव जाना लगभग छूट ही गया। क्योंकि कोई नियमित बट्वारा नहीं हुआ था अत: उस तथाकथित दुकान-घर को भी गिरधारी लाल जी के बडे सुपुत्र के नालायक पुत्र द्वारा आधा अपना कहकर बेच दिया गया । अत: पिताजी को भी मजबूरी वश शेष आधा भाग बेचना पडा और गांव से नाता ही टूट गया।
पांच मिनट बाद ही वह प्याऊ आगयी जहां पहले सभी राहगीर ठंडा–ठंडा पानी पीकर, हाथ मुंह धोकर थकान मिटा लेते थे। पानी अब भी ठंडा है पर लोग रुकते नहीं हैं। बगल में “ठन्डा” व”मिनरल वाटर’ की बोतलें मिलने लगी हैं, छोटी छोटी चाय की दुकानों पर। रास्ते में बडॆ बडे ढाबे भी खुल गये हैं
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थोडी देर में ही बडी-नहर आगयी, जो दो तिहाई रास्ता पार कर
लेने की निशानी थी, और फ़िर गांव के प्रवेश द्वार पर स्थित छोटी नहर जिसके चारों ओर अमराइयां, नीबू, करोंदे, आडू, बेर, जामुन के बाग थे। लगभग प्रतिदिन ही अम्बियां, कैरी, कच्चे-आम बटोरने के लिये बच्चों व बडों की भीड लगी रहती थी । अब तो कोई घुसने भी नहीं देता । अमराइयां व बाग उज़डे-उज़डे से हैं, नहर चुपचाप से बहती सी दिखाई दे रही है। शायद अब बच्चों व स्त्रियों के झुंड रोज़ाना नहाने नहीं आते। किसी के पास समय ही कहां है अब ।
मुख्य बाज़ार की सडक अब पक्की बन गयी है, पर खडन्जे वाली; बिकास का यह आधा-अधूरा द्रश्य लगभग हर गांव में ही दिखाई देता है। मैं मूलचन्द हलवाई, जगन जलेबी वाला को ढूंढता हूं, वे कहीं नहीं है वहां। कई मन्ज़िलों वाली बिल्डिन्गें खडी हैं। हां मुख्य बाज़ार के मुहाने पर स्थित कुआं आज भी वहीं है, उस पर हेन्ड-पम्प लग गया है। कुए की जगत पर चारों ओर रस्सी से पानी खींचने पर घिसने के निशान अब भी हैं, जिनका ह्रदयस्थ अन्तर्द्रश्यान्कन मैं प्राय: कबीर के दोहे--“रसरी आवत जात ते सिल पर होत निसान“ पढते-सुनते हुए उदाहरण स्वरूप किया करता था। हां नये निशान नही हैं ।
मैं अपना घर ढूंढने लगता हूं, तो भाईसाहब हंसने लगते हैं; फ़िर एक बहुमन्ज़िला भवन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं..वह रहा ..। अब ये ला. मूलचन्द की हवेली है। आगे नीम के पेड व पीछे कब्रिस्तान, मस्ज़िद व बडे से इमली के पेड से मैं पहचानता हूं, कन्फ़र्म करता हूं, अपने घर को जहां जीवन के सुन्दर दौर के न जाने कितने महत्वपूर्ण पल बिताये थे। वो नीम के पेड के नीचे खाट बिछाकर लेटना व कहानियां कहने–सुनने का दौर, दोपहर में सभी के चिल्लाते रहने पर भी गैंद-तडी, गिट्टी-फ़ोड का चलते रहना। पत्थर फ़ैंक कर इमली तोडना । रात में छत पर इमली के पेड व कब्रिस्तान के भूतों की कहानी सुनकर-सुनाकर एक दूसरे को डराना, पर चांदनी रात में वहीं देर तक खेलते रहना.........। ये हाट वाला कुआं है, गौशाला वाला.....अचानक भाई साहब की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटती है।
ओह ! हां, यह तो हाट-बाज़ार है। और वो चौराहे वाला मन्दिर....। जिसके चंद्रमा से होड करते शिखर-कलश गांव में सबसे ऊंचे होते थे, अब अगल-बगल में बन गयी ऊंची बिल्डिन्गों से नीचे होगये है। मैं खोजाता हूं, सुबह-शाम मन्दिर के घन्टों की सुमधुर ध्वनि में, गौधूलि-बेला में गाय-भेंसों का गले की घन्टियां बजाते हुए, रम्भाते हुए, पैरों से धूल उडाते हुए लौटकर आना । दिन में बैलगाडियों का जाना, जिन पर लद कर बच्चों का दूर-दूर तक सैर कर आना। रविवार की पेंठ की हलचल, पतिया की जात की
स्मृतियाँ ...और....जाटिनी की छोरी व बनिया के छोरे की तू..तू...मैं ..मैं.... मेरे यूही अचानक हंस पडने पर भाई साहब प्रश्न वाचक मुद्रा में पूछने लगे.. ..क्या हुआ?... कुछ नहीं, मैंने कहा.....एसे ही पुरानी बात याद आगई ।
अब यहां पुराना कुछ भी नहीं है । रघुबर के पेडे, लस्सी, कलाकन्द, जलेबी, मठरी के थाल के स्थान पर...चाय-ठन्डा, केक, चाकलेट, तरह तरह की नयी-नयी रंग व मिलावटी खोये वाली मिठाइयां, लेमन.....और ये दुकान पर जगह-जगह लटके हुए सुपारी, गुटखा, पान-मसाला के पाउच दिख रहे हैं न ..भाई साहब ने बताया। कुओं मे हेन्ड पंप लग गये हैं।
वो गड्ढा व घूरा, छोटावाला मन्दिर व भुतहा कमरा कहां है। अचानक मैंने पूछा।
वो घर के सामने वाले केम्पस में हैं न। वो घूरा तो कूडेदान बन चुका है, गड्ढा सूख चुका है, ठन्डे पानी की कुइया पत्तों व कूडे से भर कर पट चुकी है। भुतहा कमरा नया बन गया है, उसमें एक परिवार रहता है। मैं कुइया के सामने वाले घर को हसरत से देखता हूं....तभी भाई साहब की आवाज आती है....चलो अन्दर गांव में देखते हैं ।
मकान पक्के होते जारहे हैं, गलियां अब भी वही हैं, हां पक्की अवश्य होगयी हैं। पर वही आधी-अधूरी, नालियों के निकास व प्लानिन्ग के बिना; जो वस्तुत: आधे-अधूरे बिकास की ही गाथा हैं।
मैं भारी मन से लौट कर आया। चुप-चुप चलते देखकर भाई साहब ने पूछा...कैसा लगा? मैंने कहा , “ वह अब न तो गांव ही रहा है, न शहर ही हो पाया है।“
सुंदर पोस्ट.
जवाब देंहटाएंकहानी बहुत बढ़िया.....सुन्दर अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कहानी....
जवाब देंहटाएंजड़ों से जुडी.....
सादर
अनु
धन्यवाद---सबाई सिंह जी व् योगेन्द्र जी...
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