श्याम स्मृति...... मैं का त्याग एवं अहम् का नाश ... डा श्याम गुप्त
..
मैं को
मारें, अहम् का
नाश करें, सभी धर्म
व नीति ग्रंथों
मैं कहा
गया है,
तभी भगवत्प्राप्ति होती है।
आख़िर 'मैं क्या है?
जो वस्तु
आपके पास
है ही
नहीं उसे
छोड़ने का
प्रश्न ही
कहाँ उठता
है। अतः पहले
आप अपने
'मैं 'को
तो उत्पन्न करें, अहम्
का ज्ञान
प्राप्त करें,
अपने को
कुछ कहने
और कहलाने योग्य बनाएं,
तब मैं एवं अहम् को त्यागें
अपने को 'मैं' कहने योग्य बनाने का अर्थ है, स्वयं में मानवीय गुण उत्पन्न करना व सदाचार, सत्कर्म, युक्तियुक्त नीतिधर्म द्वारा सांसारिक सफलता प्राप्त करना, सिद्दि-प्रसिद्दि प्राप्त करके ईश्वरीय गुणों से तदनुरूपता | श्रीकृष्ण ने तभी गीता में 'मैं' का प्रयोग किया है। इस प्रकार, फ़िर इस मैं तथा अहम् का त्याग करके सत्पुरुषों संतों जैसी एकरूपता के साथ जीवन गुजारना, विदेह होजाना, निर्लिप्त होजाना ही ईश्वर से तदनुरूप होना ही भगवत्प्राप्ति है। तभी ईशोपनिषद कहता है-
"विद्या चाविद्या च यस्तद वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विध्य्याम्रितम्श्नुते ॥ '
अपने को 'मैं' कहने योग्य बनाने का अर्थ है, स्वयं में मानवीय गुण उत्पन्न करना व सदाचार, सत्कर्म, युक्तियुक्त नीतिधर्म द्वारा सांसारिक सफलता प्राप्त करना, सिद्दि-प्रसिद्दि प्राप्त करके ईश्वरीय गुणों से तदनुरूपता | श्रीकृष्ण ने तभी गीता में 'मैं' का प्रयोग किया है। इस प्रकार, फ़िर इस मैं तथा अहम् का त्याग करके सत्पुरुषों संतों जैसी एकरूपता के साथ जीवन गुजारना, विदेह होजाना, निर्लिप्त होजाना ही ईश्वर से तदनुरूप होना ही भगवत्प्राप्ति है। तभी ईशोपनिषद कहता है-
"विद्या चाविद्या च यस्तद वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्यं तीर्त्वा विध्य्याम्रितम्श्नुते ॥ '
धन्यवाद शास्त्रीजी ....होली की शुभकामनाएं ..
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