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सोमवार, 2 अप्रैल 2012

भ्रमर-गीत..... डा श्याम गुप्त


 
भ्रमर !
तुम कली कली का रस चूसते हो,

क्यों ?

मकरंद लोलुप बन,

बगिया की गली गली घूमते हो,

क्यों ?

दुनिया तुम्हें, निर्मोही-

प्रीति की रीति न निबाह्ने वाला ,

कली कली मधु चखने वाला, समझती है;

न जाने क्या क्या उलाहने देती है,

क्यों ?

क्यों न दे !

तुम से अच्छी तो मधुमक्खी है,

रस पीकर,

मकरंद से मधु तो बनाती है;

लेने के प्रतिदान में 

प्रीति की रीति तो निभाती है॥



तितलियां,

रंग-बिरंगी छवि से

जन जन का मन,

हर्षित तो करती हैं।

मन में प्रेम, उल्लास व-

प्रेम-आकांक्षा तो भरती हैं॥



भ्रमर !


तुम कृष्ण वर्ण हो,
प्रेम के प्रतीक, कृष्ण के वर्ण ;
फिर भी- रसास्वादन का ,
प्रतिदान नहीं देते ,
क्यों ?

कलियो !
तुम क्यों मकरंद बनाती हो ?
अपनी सुरभि से ,
भ्रमर जैसे निर्मोही को लुभाती हो;
अपनी प्रेम सुरभि को ,
व्यर्थ लुटाती हो ?

कलियाँ हँसीं,
मुस्कुराईं ;
अपना सौरभ बिखेरकर ,
खिलाखिलायीं |
प्रेम का अर्थ होता है-
देना ही देना ,
देते ही जाना |
निर्विकार भाव से,
बिना प्रतिदान मांगे,
बिना प्रतिदान पाए -
जो देता ही जाए ,
वही सच्चा प्रेमी कहाए ||

मांगे बिना भी -
भ्रमर सबकुछ देता है |
कलियों के  सौरभ-कण रूपी -
प्रेम-पाती को ,
बांटता है, प्रेमी पुष्पों में ;
वाहक बनकर-
सौरभ-कणों का |
पुष्पित होता है तभी तो,
बन बहार,
हर बार ,
सुमनांजलि बनकर ,
प्रेम संसार ,
नव-सृजन श्रृंगार ,
सृष्टि का आधार ||  

19 टिप्‍पणियां:

  1. आभार डाक्टर साहब ।

    बढ़िया प्रस्तुति ।।

    जवाब देंहटाएं
  2. उत्तर
    1. धन्यवाद धीरेन्द्र जी.... बस एतबार ही सब कुछ है ..सुन्दर..

      हटाएं
  3. उत्तर
    1. बेहतरीन रचना,,,,,,,,,,,,,,,,
      पहला कमेंट शायद स्पाम में गया.
      सादर.
      अनु

      हटाएं
    2. धन्यवाद...अनु जी....
      जो देता ही जाए ,
      वही सच्चा प्रेमी कहाए ||

      हटाएं
  4. प्रत्येक का अपना अवदान!!
    डॉ श्यान गुप्ता जी बहुत ही गहन मनगम्य प्रस्तुति!! आभार

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद सुग्य जी...आभार ....हर जगह कारण व कार्य का नियम उपस्थित है...बस तथ्य यह है कि अभी हमें ग्यात है या नहीं...

      हटाएं

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