सृष्टि व जीवन श्रंखला के श्रृंखला (ब ) जीवन, जीव व मानव -भाग-3 ......को यहां दो खण्डों में वर्णित किया जा रहा है ...
खंड-अ- मानव, मानवता
का भविष्य – कुछ परस्पर विरोधी एवं आधुनिकतम
व पुरा मत व विचार …
खंड-ब- -भविष्य का महा मानव ……
यदि जीव-सृष्टि का क्रमिक विकास ही सत्य है तो प्रश्न उठता है कि मानव के बाद क्या? व कौन? यद्यपि अध्यात्म व वैदिक-विज्ञान जब यह कहता है कि मानव, सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्व है, जो धर्म अर्थ काम व मोक्ष –चारों पुरुषार्थ में सक्षम है, तो संकेत मिलता है कि मानव अन्तिम सोपान है; हां इससे आगे युगों--सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग व कल्प, मन्वन्तर आदि—के वर्णन से स्वयम मानव के ही पुनः पुनः सदगुणों, विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं आदि में अधिकाधिक श्रेष्ठ होते जाने के विकास-क्रम का भी संकेत प्राप्त होता है, अविकसित मानव ---> मानव --->
महामानव तक ।
(अ)-मानव, मानवता
का भविष्य – कुछ परस्पर विरोधी एवं आधुनिकतम
व पुरा मत व विचार …
१-अब और नहीं बढेगा दिमाग….केम्ब्रिज वि वि के मनोविग्यान विभाग के प्रोफ़.ई.डी. बुल्मोर के अनुसार.... वर्त्तमान समय में मानव मस्तिष्क में ऊर्ज़ा-ग्रहण की क्षमता अपने चरम पर है एवं वह सूचना ग्रहण व विश्लेषण की क्षमता घटा रहा है अतः आने वाली पीढियां वर्त्तमान पीढ़ी से अधिक बुद्धिमान नहीं होगी |
अर्थात मानव के विकास की आगे और संभावनाएं कम हैं
२-डार्विन की थेओरी--- मानव के लिए आज भी सच है----
डा लुमाना, शेफील्ड वि. वि. फिनलेंड ... के अनुसार ...
---मानव आज भी ‘प्राकृतिक चुनाव’ (नेचुरल-सिलेक्शन) के अनुसार अन्य प्राणियों की भांति विकासरत है,
और “कृषि व एक-पत्नी प्रथा (विवाह प्रथा-- मोनोगेमी) को अपनाने के पश्चात मानव का विकास रुक गया है “....यह सामान्य धारणा एक भ्रान्ति है |
--- सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट—आज भी मानव के लिए सच है| पुरुष-मानव अपने शारीरिक सौंदर्य (गुड लुक्स)में लगातार बढोतरी कर रहा है |
तथा....पुरुष के लिए अधिकाधिक महिलाओं से संगति, विकसित संतति उत्पादन में अधिकाधिक सफलता का कारण होती है (जबकि स्त्री के लिए यह तथ्य प्रभावी नहीं है |) अर्थात मानव आज भी विकास के पथ पर है
|
३-डार्विन मत के विपरीत तथ्य...
---------वैज्ञानिक दार्शनिक पेरी मार्शल का कथन है कि...डार्विन के प्राकृतिक-चयन के विपरीत ...सभी जीव ठीक उसी
प्रकार से विकास करते हैं जैसे मानव अपने विचारों को ---इच्छा शक्ति द्वारा ( इन्टेन्शनली) , नवोन्मेष ...नए विचारों का प्रतिपादन व आवश्यकता के अनुसार ----- बाह्य नवीन विचारों से अपने स्वयं के विचारों का समन्वय करके विकसित करता है |
-------१९३३ में वर्कले व कैम्ब्रिज वि.वि. के रिचार्ड डासन, पाल नेल्सन, स्टीफन मेयर,दीं केन्यन आदि अपने प्रयोग ‘विकास की अनकही कथा’ (Evolution: The Untold Story) में तथा “जीवन के रहस्य को सुलझाने के प्रयत्न” (UNLOCKING THE MYSTERY OF LIFE) के निष्कर्ष में कहा है-----
१-हर कोशिका की संरचना बहुत ही गूढ़,
शानदार जैविक मशीन है | केन्द्रक में डी एन ए (DNA)की धागेनुमा संरचनात्मक मशीन डार्विन के मतानुसार यूंही सामान्य नेचुरल सिलेक्शन से नहीं हो सकती अपितु यह एक निश्चित-अभियान्त्रीकरण का नमूना (life was
intelligent design) है अतः निश्चय ही किसी कुशल अभियंता-कारीगर द्वारा बनाई हुई लगती है|
......क्या वह ईश्वर है ?
२-कोशिका के केन्द्रक में जैव-कार्य हेतु एक बेक्टीरियल- रोटेट्री मोटर है जो १००००० rpm की गति से घूमती
है| निश्चय ही यह यूंही प्राकृतिक-चयन न् होकर एक सुनिश्चित विज्ञ-यांत्रिकी है |
४ 'ऋग्वेद के ' नेति-नेति ...' के अनुसार – प्रकृति सदा नवीन प्रयोग करती रहती है... मानव के विकास का
| यह निश्चय ही भाव तत्वों के विकास पर ही आधारित होता है ...शायद .. स्नेह ....प्राणी का प्राणी के प्रति ....ऋग्वेद के सर्वश्रेष्ठ मन्त्र----
" समानी अकूती समानी हृदयानि वा | समामस्तु वो मनो यथा सुसहामती || "
के अनुसार.. .....
" समानी अकूती समानी हृदयानि वा | समामस्तु वो मनो यथा सुसहामती || "
के अनुसार.. .....
----- भारतीय दर्शन में कर्मवाद व सदाचरण के उपाख्यान इसी अग्र-विकासमुखी क्रम हेतु हैं --हम जैसा कर्म व आचरण करते हैं वे संचित होकर पीढी-दर पीढी जाते हैं एवं समाज व सभ्यता के
उन्नतोन्नत विकासवाद की सीढ़ी बनते हैं |
५- आजकल पृथ्वी के शीघ्र विनाश (२०१३ तक) की भी काफी चर्चाएं हैं जो इंका-सभ्यता के केलेंडर, कुछ भविष्यवाणियों
आदि पर आधारित हैं | यद्यपि भारतीय वैदिक-संकल्पना में भी प्रलय-सृष्टि-प्रलय का चक्रीय क्रम वर्णित है जो कल्प, युग व् मन्वन्तरों के विकास-क्रमिक काल-खण्डों में व्याख्यायित है परन्तु विनाश की किसी समयाविधि की निश्चित संकल्पना नहीं है न् ही भौतिक-सृष्टि की निश्चित विनाश परिकल्पना कहीं मिलती है। यथा................
वह नित्य प्रकृति, और जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें ।
हो सृष्टि-भाव , तब सद होते,
और लय में हों लीन उसी में।
यह चक्र, सृष्टि1 -लय2 नियमित है ,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के॥
इच्छा करता है जब लय की,
वे देव, प्रकृति, गुण, रूप सभी,
लय होजाते अपः-तत्व3 में ;
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश4 में।
लय होता जो पूर्ण -ब्रह्म में ,
फिर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है॥
दृष्टा जब इच्छा करता है,
बघुत हो चुका जगत पसारा।
मानव की अति सुख-अभिलाषा ,
से है त्रस्त देवगण सारा ।
अपः तत्व में अप मिश्रण5 से ,
मानव जीवन त्रस्त होरहा॥
नए तत्व नित मनुज बनाता,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष, आकाश , प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं6 व ऊर्जा;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता॥
सत्कर्म रूप मेरी भाषा जो,
न्याय, सांख्य, वेदान्त7 बताता;
भूला अहंकार वश, रज और,
पंचभूत तम, ही अपनाता।
भूल गया सत, महत्तत्व को,
यद्यपि आत्म-तत्व मेरा ही॥
अपना अंतस नहीं खोजता ,
मुझे ढूँढता कहाँ कहाँ वह;
क्या-क्या, कर्म-अकर्म कर रहा।
नष्ट कर रहा मूल दृव्य को;
पाना चाहे काल और गति,
हिरण्यगर्भ8 को या फिर मुझको ?
शायद अब है रात्रि आगई ,
पूर्ण होगया सृष्टि-काल भी।
काल औ गति स्थिर होजाएं ,
कार्य सभी, लय हों कारण में ।
सत तम रज 9 हों साम्य अक्रिय-अप: ,
मैं अब पुनः एक होजाऊँ ॥
निमिष मात्र में उस इच्छा के ,
सब, चेतन जग जीव चराचर ,
देव रूप रस शब्द प्रकृति विधि ;
ऊर्जा वायु जल महत्तत्व मन,
लय होजाते मूल-दृव्य में ,
महा -विष्णु के नाभि-केंद्र में॥
काल औ गति स्थिर होजाते ,
मूल द्रव्य हो सघन रूप में से;
बन जाता है पिंड रूप में।
सकल विश्व-ब्रह्माण्ड रूप धर,
जल आकाश पृथ्वी को धारे ,
महाकाल रूपी अर्णव10 में॥
वे प्रथम अजायत11 अग्नि-देव,
अपनी विकराल सी दाढों में;
ब्रह्माण्ड पिंड को खा जाते,
फिर लय होते अपःतत्व में।
महाकाश में, महाकाल में ,
जो लय होता हिरण्यगर्भ में॥
वह हिरण्यगर्भ जो अर्णव में ,
था दीप्तिमान सत-व्यक्त ब्रह्म;
लय होजाता अक्रिय,अप्रकाशित,
परम तत्व में; और एक ही,
रह जाता है , शांत-तमावृत ,
पूर्ण-ब्रह्म, जो सद-नासद है॥ ---
खंड-ब-भविष्य का महा मानव ……
वह नित्य प्रकृति, और जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें ।
हो सृष्टि-भाव , तब सद होते,
और लय में हों लीन उसी में।
यह चक्र, सृष्टि1 -लय2 नियमित है ,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के॥
इच्छा करता है जब लय की,
वे देव, प्रकृति, गुण, रूप सभी,
लय होजाते अपः-तत्व3 में ;
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश4 में।
लय होता जो पूर्ण -ब्रह्म में ,
फिर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है॥
दृष्टा जब इच्छा करता है,
बघुत हो चुका जगत पसारा।
मानव की अति सुख-अभिलाषा ,
से है त्रस्त देवगण सारा ।
अपः तत्व में अप मिश्रण5 से ,
मानव जीवन त्रस्त होरहा॥
नए तत्व नित मनुज बनाता,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष, आकाश , प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं6 व ऊर्जा;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता॥
सत्कर्म रूप मेरी भाषा जो,
न्याय, सांख्य, वेदान्त7 बताता;
भूला अहंकार वश, रज और,
पंचभूत तम, ही अपनाता।
भूल गया सत, महत्तत्व को,
यद्यपि आत्म-तत्व मेरा ही॥
अपना अंतस नहीं खोजता ,
मुझे ढूँढता कहाँ कहाँ वह;
क्या-क्या, कर्म-अकर्म कर रहा।
नष्ट कर रहा मूल दृव्य को;
पाना चाहे काल और गति,
हिरण्यगर्भ8 को या फिर मुझको ?
शायद अब है रात्रि आगई ,
पूर्ण होगया सृष्टि-काल भी।
काल औ गति स्थिर होजाएं ,
कार्य सभी, लय हों कारण में ।
सत तम रज 9 हों साम्य अक्रिय-अप: ,
मैं अब पुनः एक होजाऊँ ॥
निमिष मात्र में उस इच्छा के ,
सब, चेतन जग जीव चराचर ,
देव रूप रस शब्द प्रकृति विधि ;
ऊर्जा वायु जल महत्तत्व मन,
लय होजाते मूल-दृव्य में ,
महा -विष्णु के नाभि-केंद्र में॥
काल औ गति स्थिर होजाते ,
मूल द्रव्य हो सघन रूप में से;
बन जाता है पिंड रूप में।
सकल विश्व-ब्रह्माण्ड रूप धर,
जल आकाश पृथ्वी को धारे ,
महाकाल रूपी अर्णव10 में॥
वे प्रथम अजायत11 अग्नि-देव,
अपनी विकराल सी दाढों में;
ब्रह्माण्ड पिंड को खा जाते,
फिर लय होते अपःतत्व में।
महाकाश में, महाकाल में ,
जो लय होता हिरण्यगर्भ में॥
वह हिरण्यगर्भ जो अर्णव में ,
था दीप्तिमान सत-व्यक्त ब्रह्म;
लय होजाता अक्रिय,अप्रकाशित,
परम तत्व में; और एक ही,
रह जाता है , शांत-तमावृत ,
पूर्ण-ब्रह्म, जो सद-नासद है॥ ---
विज्ञान के
अनुसार विकास की बात करें तो आज आधुनिक विज्ञान व तकनीक शास्त्र के महाविकास ने मानव के हाथ में असीम सत्ता सौंप दी है। वह चांद पर अपने पदचिन्ह छोडकर, अपने कदम मंगल, शुक्र आदि अन्य ग्रहों की ओर बढा चुका है। उसने हाल ही में जल से युक्त अन्य
ग्रह भी खोज निकाला है एवम अब शायद जीवन युक्त ग्रह की खोज भी दूर नहीं है। यह एक
अहम विजय है। वह शरीर में गुर्दे, फ़ेंफ़डे, यकृत, ह्रदय आदि बदलने में सफ़ल हुआ है व महान संहारक रोगों पर भी विजय पाई है। हां, इन सफ़लताओं के साथ उसने अणु-शस्त्र, रासायनिक व विषाणु बम भी बनाये हैं जो सारी मानव जाति व दुनिया को नष्ट करने
में सक्षम हैं। इस प्रकार वह मानव जिसने मध्य युग में विश्व भर में अपने भाइयों के
खून से हाथ रंगे थे, आज विज्ञानं
के सहयोग से प्रकृति-विजय का भागीरथ प्रयत्न कर रहा है। साथ ही आज विज्ञान- कथाओं, सीरिअल्स, सिनेमा आदि
में, रोबोट, मानव-पशुओं, विचित्र प्राणियों की कथाओं की कल्पना की जारही है जो मानव+पशु आदि की सृष्टि का सत्य भी बन सकती है। प्राणी-क्लोन
की सफ़लता मानव-क्लोन में बदलकर शायद भविष्य की मानवेतर-सृष्टि का, विकास-क्रम हो सकती है। यद्यपि यह सभी मानवेतर-सृष्टि
वैदिक-विज्ञान /भारतीय-साहित्य में पहले से ही वर्णित है। सृष्टा, ब्रह्मा का ही
एक पुत्र--त्वष्टा ऋषि
यज्ञ द्वारा इस प्रकार की प्राणी-सृष्टि की रचना करने लगा था—मानव का सिर+पशु का धड... आदि। इससे सामान्य सृष्टि के नियम व संचालन, संचरण में बाधा आने लगी थी।
वे न प्राणी थे न मानव न देव अपितु दैत्य श्रेणी के थे।
त्रिशिरा नामक तीन सिर वाला
प्राणी (देव=दैत्य=मानव ) उसी त्वष्टा का पुत्र था जिसका इन्द्र ने बध किया, तदुपरान्त ब्रह्मा ने शाप द्वारा त्वष्टा का ऋषित्व (विद्या,ज्ञान )छीन लिया गया। शायद प्रकृति-माता को यह असंयमित विकास मन्जूर नहीं था, और आज भी नहीं होगा।
प्रश्न उठता है कि इस असीम सत्ता की विज्ञान रूपी
कुन्जी को मानव के हाथ में सौंपने वाला कौन है ? क्या ईश्वर ?-जैसा अध्यात्म कहता है कि, सब का श्रोत वही है, पूर्ण, संपूर्ण, सत्य, सनातन, ऋत-सत्य – उसी से सब उत्पन्न होता है, उसी से आता है, उसी में जाता है, वह सदैव पूर्ण रहता है---- यथा-
“ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात
पूर्ण्मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥“
या अध्यात्म, या ज्ञान या आधुनिक विज्ञान या मानव-मन जो महाकाश है, अनंत शक्ति का भन्डार? वस्तुतः वह है स्वयम मनुष्य का सर्वोत्तम विकसित मस्तिष्क—प्रमस्तिष्क( सेरीब्रम—cerebram-उच्चमस्तिष्क), जिसने मानव को समस्त प्राणियों से सर्वोपरि बनाया है। प्रमस्तिष्क ही मानव मस्तिष्क में उच्च क्षमताओं, विद्वता, उच्च संवेदनाओं, प्रेरणाओं का केन्द्र है। परन्तु यह विद्वता व क्षमता जिसने मानव के हाथ में असीम शक्ति दी है, उसके स्वयम के लिये अभिशाप भी होसकती है, डिक्टेटरों व परमाणु-बम की भांति विनाश का कारण भी । अतः मानव जाति को विनाश से बचाने हेतु, प्रकृति--माता( जो अपने पुत्र, मानव की भांति क्रूर नहीं हो सकती एवम उसे अपनी आज्ञा पर अपने अनुकूलन में सम्यग व्यवहार से चलाने का यत्न करती आई है) ने कदम बढाया है। यह कदम मानव-मस्तिष्क में एक एसे केन्द्र को विकसित करना है
जो मानव को आज से भी अधिक विवेकशील सामाज़िक, सच्चरित्र, संयमित, विचारवान, संस्कारशील, व्यवहारशील व सही अर्थों में महामानव बनायेगा। वह केन्द्र है—प्रमस्तिष्क में विकसित भाग –बेसल नीओ कार्टेक्स (basal neo cortex)|
मानव के जटिल मस्तिष्क के तुलनात्मक अध्ययन व शोधों से ज्ञात हुआ है कि मछली में
प्रमस्तिष्क केवल घ्राणेन्द्रिय तक सीमित है; रेंगने वाले ( रेप्टाइल्स) जन्तुओं में बडा
व विकसित; स्तनपायी जन्तुओं( चौपाये आदि मेमल्स) में वह पूर्ण विकसित है। इनमे प्रमस्तिष्क एक विशेष प्रकार की कोशिकाओं की पर्तों
से बना होता है जिसे कोर्टेक्स ( cortex) कहा जाता है। उच्चतम स्तनपायी मानव मस्तिष्क में ये पर्तें वहुत ही अधिक फ़ैली हुई व
अधिकाधिक जटिलतम होती जातीं हैं; एवम बहुत ही
अधिक वर्तुलित( folded) होकर बहुत ही अधिक स्थान घेरने लगती हैं।(चित्र-१. व २.)
बुद्धि, ज्ञान, उच्च-भावनाएं
आदि प्रमस्तिष्क( सेरीब्रम या cerebral cortex) की इन्ही पर्तों की मात्रा पर आधारित
होता है। मानव
में यह भाग अपने
प्रमस्तिष्क का २/३ (सर्वाधिक) होता है और मनुष्य में सर्वाधिक ज्ञान व विवेक का कारण ।
प्रो.ह्यूगो स्पेत्ज़ व मस्तिष्क विज्ञानी वान इलिओनाओ के अध्ययनो के अनुसार प्रमस्तिष्क के विकासमान भाग
कंकाल-बक्स के आधार पर होते हैं, वे कंकाल के सतह पर अपने विकास के अनुसार छाप छोडते हैं इन्ही के अध्ययन से
मस्तिष्क के विकासमान भागों का पता चलता है। इन वैज्ञानिकों के अध्ययनो से से पता चलता है कि मानव मस्तिष्क अभी अपूर्ण है तथा मानव के प्रमस्तिष्क के
आधार भाग में एक नवीन भाग ( केन्द्र ) विकसित होरहा है जो मानव द्वारा प्राप्त उच्च मानसिक
अनुभवों, संवेगों, विचारों व कार्यों का आधार होगा। यह नवीन विकासमान भाग प्रमस्तिष्क के अग्र व
टेम्पोरल भागों के नीचे कंकाल बक्स( क्रेनियम-cranium) के आधार पर स्थित है। इसी को बेसल नीओ कार्टेक्स ( basal neo cortex) कहते हैं। प्राइमरी होमो-सेपियन्स (प्रीमिटिव मानव) में यह भाग
विकास की कडी के अन्तिम सोपान पर ही दिखाई देता है व भ्रूण के विकास की अन्तिम अवस्था में बनता है। पूर्ण मानव कंकाल में यह गहरी छाप
छोडता है। बेसल-नीओ-कार्टेक्स के दोनों भागों को निकाल देने या छेड देने पर केवल मनुष्य के चरित्र व मानसिक विकास पर प्रभाव पडता है, अन्य किसी अंग व इन्द्रिय पर नहीं । अतः यह चरित्र व भावना का
केन्द्र
है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भविष्य में इस नवीन केन्द्र के और अधिकाधिक विकसित
होने से एक महामानव ( यदि हम स्वयम मानव बने रहें तो) का विकास होगा ( इसे महर्षि अरविन्द के अति-मानस की विचार धारा से तादाम्य किया जा सकता
है
); जो चरित्र व व्यक्तित्व मे मानवीय
कमज़ोरियों से ऊपर
होगा, आत्म संयम व
मानवीयता को
समझेगा, मानवीय व सामाज़िक संबंधों मे कुशल होगा
और
भविष्य में
मानवीय भावनाओं के विकास के महत्व को समझेगा।
अतः मानव मस्तिष्क के इस नव-विकसित भाग का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योकि यह निम्न स्तर
के व्यक्तियों के हाथों मे असीम शक्ति पड जाने से उत्पन्न, मानव जाति के अंधकारमय भविष्य के लिये एक
आशा की
किरण है। इस अंतरिक्ष विकास, अणु शस्त्रों के युग, पर्यावरण-प्रकृति विनाश व
विनाशकारी अन्धी दौड व होड के युग में भी मानव जाति के जीवित रहने
का संदेश
है। विज्ञान की
यह देन भी वस्तुतः प्रकृति मां का जुगाड है, अपने पुत्र मानव
को स्वयं-विनाश से बचाने हेतु; एवम त्वष्टाओं को शक्ति हीन करने हेतु ।
----- समाप्त ----
जानकारी उपलब्ध कराई इसके लिये तहेदिल से आपका शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति..आभार
जवाब देंहटाएंधन्य्वाद राज पुरहित जी..
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट हमेशा की तरह ....सुंदर प्रस्तुति..आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सोनू जी....आभार...
जवाब देंहटाएं