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मंगलवार, 8 मई 2012

(अ)-सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग - क्रमश:--- भाग- ३–वैदिक-विज्ञान का मत...क्रमश: --डा श्याम गुप्त।..




                         (अ)-सृष्टि व ब्रह्माण्ड  -  क्रमश:---

    भाग- वैदिक-विज्ञान का मत...क्रमश:                                                     

             (सृष्टि व ब्रह्माण्ड भाग २ में हमने वैदिक-विज्ञान के अनुसार सृष्टि रचना प्रारम्भ क्रम से विश्वौदन-अज (कोस्मिक सूप) बनने व उसमें भाव तत्व का प्रवेश तक व्याख्यायित किया था, आगे इस भाग में हम समय की उत्पत्ति, जड़ व जीव सृष्टि की मूल भाव संरचना, मूल तत्व-महत्तत्व, व्यक्त पुरुष, व्यक्त मूल ऊर्जा -आदिशक्ति, त्रिदेव, अनंत ब्रह्माण्ड की रचना एवं निर्माण कार्य में व्यवधान का वर्णन करेंगे)

-सृष्टि की भाव संरचना-- वह चेतन, ब्रह्म,  परब्रह्म, परात्पर-ब्रह्म, (जैसा कि भाग २ में कहा है कि चेतन प्रत्येक कण में प्रवेश करता है) -जड व जीव दोनों में ही निवास करता है उस ब्रह्म का भूः रूप (सावित्री रूप) जड श्रष्टि करता है एवम भुवः (गायत्री) जीव-श्रष्टि की रचना करता है। इस प्रकार---
---परात्पर (अव्यक्त) से परा-शक्ति (आदि शंभु-अव्यक्त) एवम अपरा-शक्ति (आदि माया-अव्यक्त) इन दोनों के संयोग से महत-तत्व  (आदि जीव तत्व-व्यक्त)।
     ---महत्तत्व से =आदि विष्णु (व्यक्त पुरुष) व आदि माया (व्यक्त अपरा शक्ति)

----आदि विष्णु से--महाविष्णु, महाशिव, व महाब्रह्मा- क्रमशः-पालक, संहारक व धारक तत्व, एव
---आदि माया से-- रमा-उमा व सावित्री, क्रमशः- सर्जक, संहारक व स्फ़ुरण तत्व बने। (विज्ञान के एंटी-इलेक्ट्रोन-प्रोटोन- न्यूत्रों   कहा जासकता है) ---आधुनिक विज्ञान में पुरुष-तत्व की कल्पना नहीं है, ऊर्जा ही सब कुछ है, कण व प्रति-कण सभी ऊर्जा हैं, जो देवी भागवत के विचार, देवी -आदि-शक्ति ही समस्त सृष्टि की रचयिता है -के समकक्ष है) 

       महाविष्णु व रमा के संयोग (सक्रिय तत्व-कण व सृजक-ऊर्जा के संयोग) से अनन्त चिद बीज या हेमांड (जिसमें स्वर्ण- अर्थात सब कुछ निहित है) या ब्रह्मान्ड (जिसमें ब्रह्म अर्थात सब कुछ निहित है) या अन्डाणु (ग्रीक दर्शन का प्राईमोर्डियल-एग) की उत्पत्ति हुई, जो असन्ख्य व अनन्त संख्या में महाविष्णु (अनन्त अंतरिक्ष में) के रोम-रोम में (सब ओर बिखरे हुए) व्याप्त थे। प्रत्येक हेमान्ड की स्वतन्त्र सत्ता थी। प्रत्येक हेमान्ड में- महाविष्णु से उत्पन्न, विष्णु-चतुर्भुज, (स्वयम भाव) व लिंग महेश्वर और ब्रह्मा (विभिन्नान्श), तीनों देव (त्रिआयामी जीव सत्ता) ने प्रवेश किया इस प्रकार इस हेमान्ड में-- त्रिदेव, माया, परा-अपरा ऊर्जा, द्रव्य-प्रक्रिति  व उपस्थित विश्वोदन अजः उपस्थित थे, सृष्टि -रूप में उद्भूत होने के लिये। (अब आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि अन्तरिक्ष में अनन्त-अनन्त आकाश गंगायें, अपने-अपने अनन्त सौर-मन्डल व सूर्य, ग्रह आदि के साथ, जो प्रत्येक अपनी स्वतन्त्र सत्तायें हैं।

२-श्रष्टि निर्माण-ज्ञान भूला हुआ ब्रह्मा- (सृष्टि-निर्माण में रुकावट)- लगभग एक वर्ष तक (ब्रह्मा का एक वर्ष=मानव के करोडों वर्ष) ब्रह्मा- जिसे श्रष्टि निर्माण करना था, उस हेमान्ड में घूमता रहा। वह निर्माण-प्रक्रिया समझ नहीं पा रहा था(आधुनिक विज्ञान के अनुसार- हाइड्रोजन, हीलियम- समाप्त होने पर निर्माण क्रम युगों तक रुका रहा, फ़िर अत्यधिक शीत होने पर ऊर्जा बनने पर ये क्रिया पुनः प्रारम्भ हुई।)
      ----जब ब्रह्मा ने विष्णु की प्रार्थना की तथा क्षीर सागर (अन्तरिक्ष, महाकाश, ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे नारायण (नार= जल, अन्तरिक्ष; अयन= निवास, स्थित, विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत, तप, श्रद्धा रूप आसन) पर वह ब्रह्मा  (कार्य रूप) अवतरित हुआ। आदिमाया सरस्वती (ऊर्ज़ा का सरस -ज्ञान-भाव रूप) का रूप धर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवम ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुई,  और उसे श्रष्टि निर्माण क्रिया का ज्ञान हुआ और वे सृष्टि रचना में रत हुए।


.समय ( काल )-- अन्तरिक्ष में स्थित बहुत से भारी कणो ने, मूल स्थितिक ऊर्जा, नाभीय व विकिरित ऊर्ज़ा, प्रकाश कणों को अत्य्धिक मात्रा में मिलाकर कठोर-बन्धनों वाले कण-प्रतिकण (जिन्हें राक्षस कहा गया) बनालिये थे. वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर प्रगति रोके हुए थे। पर्याप्त समय बाद क्रोधित इन्द्र ( रासायनिक प्रक्रिया--यग्य) ने बज्र (विभिन्न उत्प्रेरक तत्वों) के
प्रयोग से उन को तोडा। वे बिख्रे हुए कण-काल कान्ज या समय के अणु कहलाये। इन सभी कणों से-----
     १.---विभिन्न ऊर्जायें-हल्के कण व प्रकाश कण मिलकर विरल पिन्ड (अन्तरिक्ष के शुन) कहलाये जिनमें नाभिकीय ऊर्ज़ा के कारण सन्योजन व विखन्ड्न (फ़िज़न व फ़्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारे नक्षत्र (सूर्य तारे आदि), आकाश गंगायें (गेलेक्सी) व नीहारिकायें (नेब्युला) आदि बने।
     २.---मूल स्थितिक ऊर्ज़ा- भारी व कठोर कण मिलकर, जिनमें उच्च ताप भी था, अन्तरिक्ष के कठोर पिन्ड, ग्रह, उप-ग्रह, पृथ्वी  आदि बने। --क्योंकि ये सर्व प्रथम द्रश्य-ज्ञान  के रचना-पिन्ड थे व एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे, इसके बाद ही अन्य द्रश्य रचनायें हुईं, ब्रह्मा को ग्यान का भी यहीं से प्रारम्भ हुआ   अतः समय की गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गई।
       (शायद इन्हीं काल-कान्ज कणों को विज्ञान के बिग-बेन्ग -विष्फ़ोट वाला कण  कहा जा सकता है। आधुनिक-विज्ञान यहां से अपनी श्रष्टि-निर्माण यात्रा प्रारम्भ करता है।)

                     ---- क्रमश:  भाग 4...अगली पोस्ट में ...  

 

 

 


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