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शनिवार, 12 मई 2012

कुमुदिनी...डा श्याम गुप्त...

कुमुदिनी
तुम क्यों खिलखिलाती हो?
हरषाती हो ,
मुस्काती हो;
चांद को दूर से देखकर ही
खिल जाती हो।
जल मे प्रतिच्छाया से मिलकर ही,
बहल जाती हो।


कुमुदिनी ने,
 शरमाते हुए बताया-
यह जग ही परमतत्व की,
माया है, छाया है,
भाव में ही सत्य समाता है,
भावना से ही प्रेम-गाथा है।
भाव ही तो
प्रेमी-प्रेमिका में समाया है ।
वही भाव मैने
मन में जगाया है;
 मैने मन में चांद को पाया है,
तभी तो यह,
 मन-कुसुम खिलखिलाया है।


 


6 टिप्‍पणियां:

  1. कुमुदिनी
    तुम क्यों खिलखिलाती हो?
    हरषाती हो ,
    मुस्काती हो;
    चांद को दूर से देखकर ही
    खिल जाती हो।
    जल मे प्रतिच्छाया से मिलकर ही,
    बहल जाती हो।

    सुंदर रचना

    MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर लिखा है, सुन्दर रचना:-)

    जवाब देंहटाएं

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