कुमुदिनी
तुम क्यों खिलखिलाती हो?
हरषाती हो ,
मुस्काती हो;
चांद को दूर से देखकर ही
खिल जाती हो।
जल मे प्रतिच्छाया से मिलकर ही,
बहल जाती हो।
कुमुदिनी ने,
शरमाते हुए बताया-
यह जग ही परमतत्व की,
माया है, छाया है,
भाव में ही सत्य समाता है,
भावना से ही प्रेम-गाथा है।
भाव ही तो
प्रेमी-प्रेमिका में समाया है ।
वही भाव मैने
मन में जगाया है;
मैने मन में चांद को पाया है,
तभी तो यह,
मन-कुसुम खिलखिलाया है।
तुम क्यों खिलखिलाती हो?
हरषाती हो ,
मुस्काती हो;
चांद को दूर से देखकर ही
खिल जाती हो।
जल मे प्रतिच्छाया से मिलकर ही,
बहल जाती हो।
कुमुदिनी ने,
शरमाते हुए बताया-
यह जग ही परमतत्व की,
माया है, छाया है,
भाव में ही सत्य समाता है,
भावना से ही प्रेम-गाथा है।
भाव ही तो
प्रेमी-प्रेमिका में समाया है ।
वही भाव मैने
मन में जगाया है;
मैने मन में चांद को पाया है,
तभी तो यह,
मन-कुसुम खिलखिलाया है।
कुमुदिनी
जवाब देंहटाएंतुम क्यों खिलखिलाती हो?
हरषाती हो ,
मुस्काती हो;
चांद को दूर से देखकर ही
खिल जाती हो।
जल मे प्रतिच्छाया से मिलकर ही,
बहल जाती हो।
सुंदर रचना
MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...
धन्यवाद धीर जी...भावों को खिलखिलाने दो..
हटाएंप्रभावशाली रचना...हृदयस्पर्शी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद गाफ़िल जी...आभार...
हटाएंबहुत ही सुन्दर लिखा है, सुन्दर रचना:-)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजपुरोहित जी...
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