क्यों हम आज भी शेक्सपियर आदि
के पुराने ह्त्या, जादू आदि से भरे नाटकों को ही दिखाते, दोहराते जा रहे हैं...क्या
कभी हमने अपने प्राचीन नाटकों ...प्रसाद के ध्रुवस्वामिनी या मृच्छकटिकम आदि संस्कृत के , भारतेंदु जी के
नाटकों आदि को सामान्य जन को दिखाने का प्रयास किया है ..
कब
होंगे हम मुक्त गुलामी से, सांस्कृतिक गुलामी से ..... सारे ब्रिटिश उपनिवेश देश आखिर
क्यों ढो रहे हैं यह गुलामी .... कब वे अपनी मानसिक गुलामी, दासता से मुक्त होंगे?
चाहे कला जगत हो,,, चित्रकला या नाटकाकार, सिने-कर्मी, शासन स्थित अधिकारी जन ... आदि
प्रवुद्धजन कब अपना दायित्व समझेंगे, अपनी संस्कृति, राष्ट्र, समाज के प्रति |
क्या सिर्फ नेताओं को गाली या दोष देने से ही सब कुछ होजायागा, क्या नेता ही दोषी
हैं .... सर्वाधिक दायित्व कला व साहित्य
वर्ग का होता है जो समाज में अच्छाई या बुराई आरोपित करने में मुख्य भूमिका में
होता है |
यदि वारिष्ठ कलाविद आदि ही अपनी
संस्कृति, समाज व राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को उचित प्रकार से नहीं समझेंगे व
निभाएंगे तो ....आज व कल के युवा को संस्कारहीन कहने का कोसने का आपको क्या अधिकार है |
वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 22-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1040 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
विचारणीय प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीनाक्षी जी....
जवाब देंहटाएं