(अ ) सृष्टि व ब्रह्माण्ड........क्रमश:
( जिस दिन मानव ने ज्ञान का फ़ल चखा,उसने मायावश होकर प्रकृति के विभिन्न रूपों को भय, रोमांच, आश्चर्य व कौतूहल से देखा और उसी क्षण मानव के मन में ईश्वर, गाड, रचयिता, खुदा, कर्ता का आविर्भाव हुआ। उसकी खोज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्मांड, सृष्टि व जीवन की उत्पत्ति का रहस्य जानना प्रत्येक मस्तिष्क का लक्ष्य बन गया। इसी उद्देश्य यात्रा में मानव की क्रमिक भौतिक उन्नति, वैज्ञानिक व दार्शनिक उन्नति के आविर्भाव की गाथा है। आधुनिक --विज्ञान हो या दर्शन या पुरा-वैदिक - विज्ञान इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजना ही सबका का चरम लक्ष्य है।)
( जिस दिन मानव ने ज्ञान का फ़ल चखा,उसने मायावश होकर प्रकृति के विभिन्न रूपों को भय, रोमांच, आश्चर्य व कौतूहल से देखा और उसी क्षण मानव के मन में ईश्वर, गाड, रचयिता, खुदा, कर्ता का आविर्भाव हुआ। उसकी खोज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्मांड, सृष्टि व जीवन की उत्पत्ति का रहस्य जानना प्रत्येक मस्तिष्क का लक्ष्य बन गया। इसी उद्देश्य यात्रा में मानव की क्रमिक भौतिक उन्नति, वैज्ञानिक व दार्शनिक उन्नति के आविर्भाव की गाथा है। आधुनिक --विज्ञान हो या दर्शन या पुरा-वैदिक - विज्ञान इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर खोजना ही सबका का चरम लक्ष्य है।)
भाग -२ – वैदिक विज्ञान का मत ---
(पिछले अंक में सृष्टि व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति पर आधुनिक
विज्ञान सम्मत मत का वर्णन किया गया था, यहाँ पुरा-मत, वैदिक विज्ञान के अनुसार सृष्टि व
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन किया जा रहा है। )
वैदिक विज्ञान के अनुसार समस्त सृष्टि का रचयिता - 'परब्रह्म ' है; जिसे ईश्वर, परमात्मा, वेन, विराट, ऋत, ज्येष्ठ ब्रह्म, सृष्टा व चेतन आदि नाम से भी पुकारा जाता है।)
1. सृष्टि पूर्व --ऋग्वेद के नासदीय सूत्र
(१०/१२९/१ व २ ) के अनुसार ---
"न सदासीन्नो ,सदासीत्त दानी । न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत ॥
किमावरीवः
कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद गहनं गभीरम ||
--अर्थात प्रारंभ में न सत् था न असत, न परम व्योम
व व्योम
से परे लोकादि, तो यह
छिपा था क्या, और इसे किसने ढका था, उस पल तो अगम अतल जल भी कहां था ।
एवं
-------सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। तथा-
एवं
"आनंदी सूत स्वधया तदेकं । तस्माद्वायान्न परःकिन्चनासि
॥ "
-------सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। तथा-
"अशब्दम स्पर्शमरूपमव्ययम, तथा रसम नित्यं गन्धवच्च यत." (कठोपनिषद -१/३/१५)--
-अर्थात वह परब्रह्म अशब्द,अस्पर्श ,अरूप,अव्यय,नित्य व अनादि है। भार रहित व गति रहित, स्वयम्भू है, कारणों का कारण, कारण-ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया। । ( यह विज्ञान के एकात्मकता पिंड
के समकक्ष है जो प्रयोगात्मक अनुमान प्रमाण सेजाना गया है।) कौन, कहाँ था कोई नहीं जानता
क्योंकि -- "अंग वेद यदि वा न वेद
" वेद भी नहीं जानता क्योंकि तब ज्ञान भी नहीं था। तथा --""अशब्दम
स्पर्शमरूपंव्ययम् ,तथा
रसं नित्यं गन्धवच्च यत ""-(कठोपनिषद १/३/१५ )....
२.
परब्रह्म का भाव संकल्प- उस परब्रह्म ने अहेतुकी सृष्टि-प्रवृत्ति से, सृष्टि हित भाव संकल्प
किया तथा ॐ के रूप में मूल अनाहतनाद स्वर अवतरित
होकर भाव संकल्प से अवतरित व्यक्त
साम्य
अर्णव
(महाकास ,मनोआकास ,गगन या ईथर या परम व्योम) में उच्चरित होकर
गुंजायमान हुआ,
जिससे अक्रिय ,असत,निर्गुण व
अव्यक्त असद
परब्रह्म; सक्रिय,सत्,सगुण व
सद् व्यक्त पर ब्रह्म हिरण्यगर्भ (जिसके गर्भ में स्वर्ण अर्थात
सब कुछ है) के रूप में प्रकट हुआ,
जो स्वयम्भू (जिसमें सबकुछ- जीव,
जड़, प्रकृति, चेतन, सद्-असद,
सत्-तम्-रज, कार्य-कारण (मूल अपः), मूल आदि-ऊर्जा
अन्तर्निहित थे) एवं परिभू
(जो स्वयं
सब में निहित था)।
३.एकोहम बहुस्यामः - वैदिक सूक्त -"स एकाकी नैव रेमे ...." व
"कुम्भे रेत मनसो ...." के अनुसार व्यक्त ब्रह्म-
हिरण्यगर्भ की सृष्टि हित -ईशत इच्छा- एकोहम बहुस्यामः (अब में एक से बहुत हो जाऊँ, जो सृष्टि का प्रथम काम संकल्प-मनो रेतः संकल्प
था); उस साम्य अर्णव
में ॐ
के अनाहत नाद में स्पंदित हुई। प्रतिध्वनित स्पंदन (= बिग्बेंग - विज्ञान ) से महाकाश की साम्यावस्था भंग
होने से अक्रिय अपः
(अर्णव में उपस्थित अव्यक्त मूल इच्छा तत्व)
सक्रिय होकर
व्यक्त हुआ व उसके कणों में हलचल से आदिमूल अक्रिय
ऊर्जा, सक्रिय
ऊर्जा में प्रकट हुई व उसके कणों में
भी स्पंदन होने लगा। कणों
के इस द्वंद्व-भाव से , महाकाश में एक असाम्यावस्था व अशांति की स्थिति उत्पन्न हो गई।
(यही कुछ भाव बाइबल में भी हैं---
--जॆनसिस
1:1 -- "शुरुआत् मॆ भगवान् ने स्वर्ग् और् प्रिथ्वी
बनाया." तथा..
यूहन्ना
1:1 "आदि में वचन था,
और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था।" )
कुरान का भी तथ्य--- बकौल----गीतकार --इरस़ाद
कमील .....
जब
कहीं पे कुछ नहीं था
कुछ भी
नहीं था,
वहीं
था वहीं था
वहीं
था वहीं था
वो
जो मुझमें समाया
वो
जो तुझमें समाया
मौला
वाही वाही माया...
क़ुन फ़ाया क़ुन..
क़ुन फ़ाया क़ुन..
४.अशांत अर्णव (परम व्योम) आकाश में मूल अपः तत्व के कणों की टक्कर व द्वंद्व से ऊर्जा की अधिकायत मात्रा उत्पन्न होने लगी, साथ ही साथ ऊर्जा व आदि अपःकणों से परमाणु पूर्व कण तो बनने लगे परन्तु कोई निश्चित सततः प्रक्रिया नहीं थी
५.नाभिकीय ऊर्जा (न्यूक्लीयर इनर्जी)- ऊर्जा व कणों की अधिक उपलब्धता से, प्रति १००० इकाई ऊर्जा से एक इकाई नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति होने लगी-
"नाभानेदिष्ट ऋषि एक गाय दे,
सहस चाहते तभी इन्द्र से "--- -ऋग्वेद आख्यान व सृष्टि-महाकाव्य (डा.श्यामगुप्त) में आख्यान...
जिससे ऋणात्मक, धनात्मक, अनावेषित व अति-सूक्ष्म केन्द्रक कण आदि परमाणु पूर्व कण बनने लगे। पुनः विभिन्न प्रक्रियाओं (रासायनिक व भौतिक संयोग या विश्वयज्ञ) द्वारा असमान धर्मा कणों से विभिन्न नए नए कण व समान धर्मा कण स्वतंत्र रूप से (क्योंकि समान धर्मा कण आपस में संयोग नहीं करते, यम्-यमी आख्यान -ऋग्वेद) महाकाश में उत्पन्न होते जा रहे थे।
६.रूप सृष्टि कण --उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अदृश्य व अश्रव्य रूप कण (भूतकण -पदार्थ कण ) बने जो अर्यमा (सप्तवर्ण -प्रकाश व ध्वनिकण,) सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोनवाले असन्त्रप्त) अजैविक (इनोर्गेनिक ) व अष्टबसु (८ इले .वाले संतृप्त )जैविक (ओरगेनिक ) कण थे।
७.त्रिआयामी रूपसृष्टि-कण-( थ्री डाईमेंसनल पार्टिकल ) उपरोक्त रूपकण व अधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों का आविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण( फंक्शनल -कार्यकारी पार्टिकल ) अणु, परमाणु थे जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदि प्रक्रियाओं (इन्द्र व अन्य ऋषियों की यज्ञों) से समस्त भूतकण, ऊर्जा व पदार्थ बने
८.चेतन तत्व का प्रवेश- वैदिक विज्ञान के अनुसार- वह चेतन परब्रह्म ही सचेतन भाव व प्रत्येक कण का क्रियात्मक भाव तत्व बन कर उनमें प्रवेश करता है ताकि आगे जीव-सृष्टि तक का विस्तार हो पाये। इसी को दर्शन में प्रत्येक बस्तु का अभिमानी देव कहा जाता है, यह ब्रह्म चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता है और जीवन की उत्पत्ति करता है। प्रत्येक रूप उसी का रूप है (ट्रांस फार्मेसन)--"अणो अणीयान, महतो
महीयान "। इसीलिए कण-कण में भगवान कहा जाता है।.... यह चेतन-भाव वैदिक विज्ञान की विशिष्ट परिकल्पना है आधुनिक विज्ञानं में इस चेतन भाव-तत्व की परिकल्पना/ संकल्पना नहीं है।
इस प्रकार ये सभी कण महाकाश में प्रवाहित हो रहे थे ऊर्जा के सहित। इसी कण-प्रवाह को वायु नाम
से सर्व
प्रथम उत्पन्न तत्व माना
गया, कणों
के मध्य
स्थित विद्युत विभव अग्नि (क्रियात्मक ऊर्जा) हुआ।
भारी कणों
से जल तत्व की उत्पत्ति हुई । जिनसे आगे --
-----जल से सारे जड़ पदार्थ -ठोस ,तरल ,गैसीय आदि।
-----अग्नि से सब ऊर्जाएं।
-----वायु से मन-भाव, बुद्धि, अहम्, शब्द आदि।
९.विश्वोदन अजः (पंचौदन अजः)- अजः =अजन्मा तत्व, जन्म-मरण से परे। ये सभी तत्व, ऊर्जाएं, सभी में सत्, तम्, रज रूपी गुण, व चेतन देव- संयुक्त सृष्टि निर्माण का मूल पदार्थ (विश्वोदन अजः --सृष्टि कुम्भकार ब्रह्मा की गूंथी हुई माटी) (आधुनिक विज्ञान का कॉस्मिक
सूप ), सारे अन्तरिक्ष में तैयार था, सृष्टि रचना हेतु।
१०.मूल चेतन आत्म भाव (३३ देव)- चेतन जो प्रत्येक कण का मूल क्रिया भाव बनाकर उसमें बसा, वे ३३ भाव-रूप थे, जो ३३ देव कहलाये। ये भाव-देव है--११ रुद्र --भिभिन्न प्रक्रियाओं के नियामक; १२ आदित्य-प्रकृति चलाने वाले नीति निर्देशक; ८ बसु- मूल सेद्धान्तिक रूप, बल, वर्ण, नीति नियामक; इन्द्र- संयोजक व विघटक, नियमन व प्रजापति- सब का आपस में संयोजक व समायोजक भाव- ये सभी भाव-तत्व पदार्थ, सिन्धु- (महाकाश, अन्तरिक्ष) में पड़े थे। विश्वोदन अजः के साथ। (ये
सभी भाव आत्म पदार्थ, चेतन, जो ऊर्जा, कण, पदार्थ
सभी के मूल गुण हैं, आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जानता, ये रासायनिक, भौतिक
आदि सभी बलों, क्रियाओं
के भी कारण हैं।)
---- क्रमश:...आगे (अ) सृष्टि व ब्रह्माण्ड .... भाग -3 .....
बहुत बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
धन्यवाद शान्ति जी...स्वागत है....
हटाएं