हे चातक !
तुम क्यों बिरहा गाते हो ?
धरती के जल से-
प्यास नहीं बुझाते हो |
हे, उच्चकुल प्रतिमान !
स्वाति- बूँद के हेतु,
प्यासे रह जाते हो ,
सब दुःख सह जाते हो ||
पपीहे ने आसमान में चक्कर लगाया,
टेर लगाकर बिरहा गाया |
प्रेम, परीक्षा लेता है,
प्रेम, परीक्षा देता है ;
सच्चा प्रेम तो-
किसी एक से ही होता है |
प्रेमी तो,
त्याग तप साधना से ही
अमर-प्रेम जीता है |
तभी तो चातक,
स्वाति -बूँद रूपी -
सच्चा प्रेम-रस ही पीता है ||
सच्चा प्रेमी तो,
बिरहा गाते हुए भी-
सारा जीवन जी लेता है |
चातक,
सौभाग्यशाली है कि-
स्वाति-बूँद का ,
रूप-रस तो पी लेता है ||
सुंदर प्रस्तुति अभिव्यक्ति ,,,,,
जवाब देंहटाएंMY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
हे चातक !
हटाएंतुम क्यों बिरहा गाते हो ?
धरती के जल से-
प्यास नहीं बुझाते हो |
हे, उच्चकुल प्रतिमान !
स्वाति- बूँद के हेतु,
प्यासे रह जाते हो ,
सब दुःख सह जाते हो ||
बहुत खूब ...
धन्यवाद कुलदीप जी ...आभार ..
हटाएंइस रचना के लिए आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद धीरेन्द्र जी व सबाई सिंह जी...
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति !!
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