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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा .... डा श्याम गुप्त ...


                             (प्रचलित समीक्षा -पद्दति में  किसी पुस्तक या कहानी आदि की समीक्षा करने में केवल उस पुस्तक के विषय  वस्तु  की ही समीक्षा की जाती है परन्तु संघात्मक समीक्षा पद्दति द्वारा पुस्तक समीक्षा ....में पुस्तक की सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है अर्थात विषय-वस्तु के साथ-साथ उसके लेखक/ कवि के बारे में, लेखक द्वारा आत्म-कथ्य , समर्पण व आभार , पुस्तक की छपाई, आवरण-पृष्ठ, उसपर चित्र , मूल्य, अन्य विद्वानों द्वारा लिखी गयीं भूमिकाओं के तथ्यांकन एवं प्रकाशक आदि  द्वारा दिए गए विवरण व कथ्य इत्यादि की भी सम्पूर्ण समीक्षा की जाती है | यह विधा  हिन्दी कविता में अगीत -विधा के संस्थापक  डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा प्१९९५ से प्रचलित की गयी ...देखिये एक समीक्षा...)

समीक्ष्य कृति --- इन्द्रधनुष ( उपन्यास)....लेखक -डा श्याम गुप्त ....मूल्य ....७५/- रु.....पृष्ठ--१०४.
संपर्क-- सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ -२२६०१२ .
प्रकाशन वर्ष-- २०११. ई.... प्रकाशक.... सुषमा प्रकाशन , आशियाना, लखनऊ |
समीक्षक-- पार्थो सेन ..

                       डा श्याम गुप्त जी चिकित्सा जगत से सेवा-निवृत्त होने के पश्चात हिन्दी साहित्य जगत में पूर्णतया समर्पित हैं | मूलतः आप एक प्रसिद्ध कवि हैं एवं  अगीत विधा के  रचयिता हैं | उपन्यास क्रम में 'इन्द्रधनुष' आपका प्रथम प्रयास है | इसके पूर्व आप गीत व अगीत दोनों ही विधाओं में शूर्पणखा, सृष्टि, प्रेमकाव्य आदि  छ: काव्यों का सृजन कर चुके हैं | जो साहित्य जगत में सराहे गए | इस उपन्यास में इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह ही सात मुख्य बिंदु --स्त्री, पुरुष, अलौकिक-प्रेम, कविता, वेद-वेदान्त, चिकित्सा जगत व सामाजिक परिदृश्य हैं | अतः शीर्षक सार्थक है |
                        लेखक स्वयं एक शल्य-चिकित्सक भी है |अतः उपन्यास का प्रारम्भ मैडीकल कालेज के वातावरण से होता है | वे स्वयं एक कवि भी हैं तो यत्र-तत्र संवादों में कविता का का समावेश है | संवादों में चिकित्सा संबंधी चर्चाओं  के अतिरिक्त कई मूल्यवान परिचर्चाएं हैं | जैसे एक स्थान पर पात्र जयंत कृष्णा कहता है...
                  "...सदियों से भारत में दो प्रतिकूल विचार धाराएं चली आ रही हैं | 
                  एक ब्राह्मण वादी व  दूसरी   ब्राह्मण विरोधी , जो अम्बेडकरवादी  विचार धारा  है  |"
इसी चर्चा में भाग लेती हुई एक अन्य पात्र सुमि  कहती है....
                  " वास्तव में वे धाराएं देव-संस्कृति व असुर संस्कृतियाँ हैं | क्योंकि न तो राम ब्राह्मण                                     थे   न कृष्ण   ही जबकि रावण ब्राहमण था परन्तु ब्राह्मण-विरोधी |"

                          पूरा उपन्यास मैडीकल कालेज के छात्र कृष्ण गोपाल ...केजी  तथा  सुमित्रा ...सुमि ..के मध्य संवादों  पर आधारित है जिसका कुछ अंश अतीत है | दोनों सहपाठी हैं | एक आकर्षण दोनों के मध्य उत्पन्न होता है यद्यपि नायिका पहले से ही वाग्दत्ता है | दोनों का  पृथक-पृथक विवाह होता है और सफल भी  है | यद्यपि वे अलग अलग होजाते हैं व रहते हैं परन्तु एक आत्मिक  जुड़ाव व बौद्धिक-आत्मिक प्रेम सम्बन्ध जो सुमि  व केजी के मध्य था, सदा बना रहता है जो एक चर्चा में कवितामय संवाद  से परिलक्षित होता है... केजी का कहना है...
            "प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन,
             साँसों का चलना है जीवन|
             मिलना और बिछुडना जीवन,
             जीवन हार भी जीत भी जीवन |"               
                                         सुमि  का कथन देखिये..... 
             प्यार है शाश्वत कब मरता है,
             रोम रोम में रहता है |
            अजर अमर है वह अविनाशी,
            मन में रच बस रहता है |"
                             उपन्यास का अंत दुखांत है | सुमि  की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो जाती है, पाठक यहीं मर्माहत हो जाता है |  उपन्यास में शिक्षित वर्ग का परिवेश है, पात्र, संवाद तथा वातावरण उसी के अनुरूप है | यौन सम्बन्ध रहित अलौकिक प्रेम की महत्ता इस उपन्यास का सन्देश है |
                            भाषा मूलतः परिमार्जित हिन्दी है | आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश है | शैली प्रभावशाली व संवाद सारगर्भित हैं |
                            कृति मनुष्य के आचार-विचार व समाज को शिक्षा देने वाली नारियों को समर्पित है |प्रोफ. बी . बै. ललिताम्बा ( बेंगलूरू ) , भू.पू अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इंदौर वि.वि (म.प्र.)  व  कवि श्री मधुकर अष्ठाना ने अपना आशीर्वाद  इस पुस्तक को प्रदान किया है | लेखक ने अशरीरी प्रेम को महत्त्व देते हुए उपन्यास का सृजन किया है जैसा कि उपन्यास में उल्लेख है|
                           आवरण पर एक सुन्दर लेखक द्वारा ही स्वनिर्मित हस्त-चित्र है |  मूल्य सर्वथा उचित है | एक डाक्टर मनुष्य जीवन को बहुत करीब से देखता है अतः उसका अलग ही अनुभव है |इस कृति को एक प्रेरणादायी प्रसंग मानना अधिक उचित प्रतीत होता है | डा श्याम गुप्त जी की सारी कृतियाँ शालीनता लिए होती हैं | आज के शारीरिक संबंध पर आधारित प्रेम के युग में इस उपन्यास का स्वागत अवश्य होना चाहिए | हार्दिक बधाई , मैं अपने एक अगीत से यह समीक्षा पूरी करता हूँ--
           "निहारूंगा मैं तुझे अपलक
            जैसे एक अबोध तकता है
            इन्द्रधनुष  एक टक |"                           
                                                         ----- .समीक्षक .... पार्थोसेन ...




          

2 टिप्‍पणियां:

  1. संक्षिप्त सुन्दर समीक्षा .अस्थाना होता है सरनेम न कि अष्ठाना .डॉ .श्याम गुप्त को बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  2. सही कहा वीरू भाई...धन्यवाद ----पर वो अष्ठाना ही लिखते हैं...

    जवाब देंहटाएं

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