असत्य की
उत्पत्ति के चार मूल कारण हैं –क्रोध, लोभ, भय एवं
हास्य | वास्तव
में तो मानव का अंतःकरण असत्य कथन एवं वाचन नहीं करना चाहता परन्तु इन चारों के
आवेग में वायवीय मन बहने लगता है और सत्य छुप जाता है |
क्रोध व लोभ तो सर्व-साधारण के लिए भी जाने-माने संज्ञेय और निषेधात्मक
अवगुण हैं; भय वस्तु-स्थितिपरक अवगुण है परन्तु हास्य
...सर्वसाधारण के संज्ञान में अवगुण नहीं समझा जाता है अतः वह सबसे अधिक असत्य
दोष-उत्पत्तिकारक है |
हास्य व व्यंग्य के अत्यधिक प्रस्तुतीकरण से समाज में असत्य
की परम्परा का विकास, प्रमाणीकरण एवं प्रभावीकरण होता है जो विकृति उत्पन्न करता
है | महत्वपूर्ण विषय भी जन- सामान्य द्वारा ‘..अरे, यह तो
यूँही मजाक की बात है’ के भाव में बिना गंभीरता से लिए अमान्य कर दिया जाता है | इसलिए इस
कला का साहत्यिक-विधा के रूप में सामान्यतः एवं बहुत अधिक प्रयोग नहीं होना
चाहिए |
इसीलिये हास्य व व्यंग्य को विदूषकता व
मसखरी की कोटि में निम्न कोटि की कला व साहित्य माना जाता है |
हास्य व व्यंग्य के अत्यधिक प्रस्तुतिकरण से समाज में असत्य की परम्परा का विकास, प्रमाणीकरण एवं प्रभावीकरण होता है जो विकृति उत्पन्न करता है |
…अवश्य ही यह गुनाह मंचों पर चुटकलेबाज़ हास्य कविता के नाम पर व्यापक पैमाने पर कर रहे हैं ।
…
डॉ. श्याम गुप्त जी
साधुवाद इस संक्षिप्त लेख के लिए ।
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर प्रविष्टि वाह!
जवाब देंहटाएंइसे भी अवश्य देखें!
चर्चामंच पर एक पोस्ट का लिंक देने से कुछ फ़िरकापरस्तों नें समस्त चर्चाकारों के ऊपर मूढमति और न जाने क्या क्या होने का आरोप लगाकर वह लिंक हटवा दिया तथा अतिनिम्न कोटि की टिप्पणियों से नवाज़ा आदरणीय ग़ाफ़िल जी को हम उस आलेख का लिंक तथा उन तथाकथित हिन्दूवादियों की टिप्पणयों यहां पोस्ट कर रहे हैं आप सभी से अपेक्षा है कि उस लिंक को भी पढ़ें जिस पर इन्होंने विवाद पैदा किया और इनकी प्रतिक्रियायें भी पढ़ें फिर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया दें कि कौन क्या है? सादर -रविकर
राणा तू इसकी रक्षा कर // यह सिंहासन अभिमानी है
धन्यवाद राजेन्द्र जी ...आभार
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